:) ग्रीष्म ऋतुचर्या का दर्शन और प्रयोग :)एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आयुर्वेद में ऋतुचर्या किन सिद्धांतों को ध्यान में रखकर तय की गयी होगी? लगभग 5000 साल पहले तय की गयी ऋतुचर्या क्या आज भी उपयोगी है? संक्षेप में देखें तो पहली बात यह है आयुर्वेद का लोक-पुरुष-साम्य सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि पुरुष लोक के समान है (च.शा.5.3: पुरुषोऽयं लोकसम्मितः) इस सिद्धांत के प्रकाश में देखने पर लोक या पृथ्वी के वातावरण का सीधा सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है क्योंकि लोक और पुरुष में समानता (च.शा.5.3: लोकपुरुषयोः सामान्यम्) होने से सामान्य-विशेष का सिद्धांत कार्य करता है| अर्थात सामान भावों को सामान भावों से मिलाने पर उस भाव की वृद्धि और असमान भावों को मिलाने पर ह्रास होता है| सत्य बुद्धि तभी प्रकट होती है या अकल तभी आती है जब स्वयं के अंदर प्रकृति को व प्रकृति के अंदर स्वयं को देखा जाये (च.शा.5.7): सर्वलोकमात्मन्यात्मानं च सर्वलोके सममनुपश्यतः सत्या बुद्धिः समुत्पद्यते| यहाँ पर लोक से तात्पर्य पूरी दुनिया के वातावरण से है जिसमें छः धातुयें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तथा आत्मा शामिल हैं (च.शा.5.7): षड्धातुसमुदायो हि सामान्यतः सर्वलोकः| इस सूची में आत्मा का शामिल होना आश्चर्यजनक नहीं मानना चाहिये क्योंकि पौधे, प्राणी और सम्पूर्ण जीवन भी लोक में शामिल है| उपरोक्त साम्य के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस प्रकार चंद्रमा, सूर्य, और वायु क्रम से विसर्ग, आदान, विक्षेप क्रियाओं से जगत का धारण करते हैं ठीक उसी प्रकार सोमांश कफ, सूर्य जैसा पित्त, तथा वायु देह का धारण करते हैं (सु.सू.21.8): विसर्गोदानविक्षेपैः सोमसूर्यानिला यथा| धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा||इन आयुर्वेदिक सिद्धांतों को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो पर्यावरण और पारिस्थिक तंत्र के साथ मानव के रिश्तों की अनवरत सार-संभाल या अनुकूलन ही ऋतुचर्या है। इसे साधारण शब्दों में यों समझें कि यदि हवा, पानी, तापक्रम, मिट्टी, पेड़-पौधों में ऋतु के अनुसार परिवर्तन होते हैं तो हमें भी उसके अनुसार जीवन-शैली और खान-पान और पहनावे में परिवर्तन करना पड़ता है| यह परिवर्तन या अनुकूलन ही धातुसाम्य रखता है। यही अनागत रोगों का प्रतिकार या विकार-अनुत्पत्ति में सहायक है।आज की चर्चा मई-मध्य से जुलाई-मध्य के ग्रीष्मकाल पर है, जिसके मुख्य शास्त्रीय स्रोत चरकसंहिता (च.सू.6.27-32), सुश्रुतसंहिता (सु.उ.64.40-45) एवं अष्टांगहृदय (अ.हृ.सू.3.26-41) हैं। प्रकाशित समकालीन वैज्ञानिक शोध और आयुर्वेदाचार्यों का अनुभवजन्य ज्ञान भी यहाँ समाहित है। संहिताओं में उपलब्ध जानकारी का मूल स्रोत लगभग आठवीं शताब्दी ईसापूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी के मध्य का है। अतः ऋतुचर्या पर उपलब्ध कुछ सलाह या निर्देश ऐसे भी हैं जिनकी समकालीन सार्थकता को सावधानीपूर्वक समझना आवश्यक है।रोचक बात यह है कि आयुर्वेद की ऋतुचर्या का वर्णन विश्व में सबसे प्राचीन है और इस बात के प्रमाण हैं कि इस विद्या को प्राचीन चीन एवं ग्रीक चिकित्सा पद्धतियों सहित विश्व की अन्य चिकित्सा पद्धतियों ने भारत से सीखा और समाहित किया। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में ऋग्वेद, अथर्ववेद, चरक और सुश्रुत आदि द्वारा हिप्पोक्रेट्स (460-370 ईसा पूर्व) और गैलेन (129-210 ईस्वी) से कम से कम 1500 वर्ष पूर्व स्वास्थ्य और चिकित्सा के लिये ऋतुचर्या, दिनचर्या, रात्रिचर्या, स्वस्थवृत्त, सद्वृत्त, आहार एवं रसायन के महत्त्व को बहुत विस्तृत रूप से प्रतिपादित व वर्णित किया गया था।ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें अत्यन्त तीक्ष्ण होने से वातावरण के तापमान को बढ़ा देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण और द्रव्यों से जल का अंश धीरे-धीरे कम होने लगता है। यही कारण है कि इस ऋतु में कफ का क्षय तथा वात की वृद्धि होती जाती है। बल में कमी तथा अग्नि सामान्य रहती है। यहाँ यह बताना उपयोगी होगा कि विश्व के 245 शहरों के आँकड़े बताते हैं कि हीटवेव या लू के कारण प्रतिवर्ष 12000 से अधिक लोग मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट के कारण प्रायः आसपास के क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में तापमान 3.5 से 12 डिग्री सेंटीग्रेड तक अधिक होने लगता है। इसके कारण लगभग 3 मिलियन लोगों की मृत्यु प्रतिवर्ष होती है। भारत में मई 1998 की ऐतिहासिक हीट वेव जिसमें देश ने दो सप्ताह तक गंभीर गर्मी की लहर का अनुभव किया, वह तत्समय में पिछले 50 वर्षों में सबसे खतरनाक थी। जलवायु परिवर्तन की दशा में भारत सहित पूरी दुनिया में हीट वेव की आवृत्ति, तीव्रता और अवधि में बढ़ोत्तरी, और परिणामस्वरूप मृत्यु बढ़ने की आशंका है। भारत में वर्ष 2009-2010 का सूखा और गर्मी की लहर रूस की रिकार्ड-तोड़ गर्मी के टक्कर की थी। भारत के 640 जिलों में से हीट वेव के सन्दर्भ में 10 बहुत अधिक और 97 बहुत जोखिम वाले जिलों की श्रेणी में आते हैं। सामान्य जोखिम तो देश भर में है। शोध से ज्ञात होता है कि किसी दिन तापमान में 10 डिग्री फैरेनहीट की बढ़त उसी दिन हृदय रोगों, स्ट्रोक, श्वसन रोग, निमोनिया, निर्जलीकरण, गर्मी से स्ट्रोक, मधुमेह और गुर्दे की विफलता सहित कई बीमारियों के लिये अस्पताल में भर्ती होने का खतरा बढ़ जाता है। गर्मी की बढ़त से वर्ष 2100 तक वैश्विक जी.डी.पी. के 20 प्रतिशत तक हानि की आशंका है। ऋतुचर्या प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न जोखिम को कम करने की रणनीति है।ग्रीष्म ऋतु में कठोर शारीरिक श्रम, व्यायाम व सहवास आदि की अति से बचना चाहिये। धूप में अधिक देर तक समय नहीं गुजारना चाहिये। लवण, कटु एवं अम्ल रसों की प्रधानता वाले द्रव्य, शुष्कताकारक व उष्ण पदार्थों का उपयोग छोड़ देना श्रेयस्कर है। अल्कोहल का प्रयोग भी नहीं करना चाहिये, यदि करें तो बहुत कम मात्रा में, और उसमें भी बहुत पानी मिलाकर ही उपयोग करें। अन्यथा शोथ, शिथिलता, दुर्बलता, दाह व मोह जैसी समस्यायें उत्पन्न होती हैं।पेय पदार्थों में रायता एवं खाण्ड (खट्टे, मीठे, नमकीन द्रव्यों का घोल) इक्षुशर्करा या खाण्ड मिला हुआ सुंगधित एवं शीतल पानक या पन्ना लाभकारी है। मंथ अर्थात घी-युक्त सत्तू का शीतल जल में बनाया गया हल्का गाढ़ा घोल जिसमें इक्षुशर्करा, खाण्ड या शहद भी मिलाई जा सकती है, लिया जा सकता है। केला या महुआ के पत्तों से ठंडा होने से ढके हुये मिट्टी के नये बर्तन में अम्ल-रस युक्त पन्ना या शर्बत भी कुछ समय रखकर पिया जा सकता है। मधु, द्राक्षा (दाख या मुनक्का), फालसा, आमलकी (आँवला) खण्ड (खांड़) को शीतल जल में मथ कर पंचसार बनाया जाता है। इसे मिट्टी के सकोरे में पीने का आनंद लीजिये। स्वाद हालाँकि व्यक्तिगत मामला है, पर पंचसार में अगर सैन्धव लवण की चुटकी मार दें तो मेरी दृष्टि में इससे स्वादिष्ट, तृप्तिकर, पौष्टिक और शीतल पेय दुनियाभर में उपलब्ध नहीं है। यह उच्चकोटि का एंटीऑक्सीडेंट होने के कारण ऑक्सीडेटिव-स्ट्रेस को कम करने वाला स्वादिष्ट रसायन भी है। पाढ़ल के पुष्पों से सुगंधित, पुदीना या कर्पूरयुक्त शीतल जल पिया जा सकता है। रात में भैंस के दूध में खाण्ड मिलाकर ठंडा कर पिया जा सकता है। बाजारू कृत्रिम शीतल पेय से छुटकारा पाना ही श्रेयस्कर है|खाद्य पदार्थों में ग्रीष्म ऋतु में मधुर रस प्रधान, स्वादिष्ट, शीतल और स्निग्ध अन्नपान हितकारी होता है। उदाहरण के लिये, शालि-चावल के भात में घी या दूध में मिलाकर खाना बहुत स्वादिष्ट लगता है। यह ध्यान देना आवश्यक है कि किसी भी ऋतु में प्रत्येक भोजन में सभी छः रसों का होना आवश्यक है। ग्रीष्म ऋतु में शीतल, स्निग्ध और मधुर रस प्रधान स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों को प्रधानता देते हुये अन्य रसों को भी थोड़ी मात्रा में ग्रहण करना चाहिये।ग्रीष्म ऋतु में शरीर में चन्दन का लेप करना, सूक्ष्म व लघुवस्त्र पहनना व माला धारण करना लाभकारी रहता है। शीतल घरों में निवास, विशेषकर ऐसे कक्ष जिनमें जलधारा प्रवाहित हो रही हो, ऐसी शिल्पकलाकृतियों से सज्जित कक्ष जिनमें से मंद जलधारा प्रवाहित हो रही हो, में विश्राम करने का ग्रीष्मकालीन आनन्द अवर्णनीय है। रात्रि में सोने हेतु चन्द्रमा की शीतल किरणों से ठंडी हुई घर की छत पर सोने का आनन्द भी लिया जा सकता है। हालाँकि शहरों में औद्योगिक व यातायातीय वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या है। प्रदूषित वायु में निलंबित श्वसनीय विविक्त कणों की मात्रा भारत की परिवेशी वायु गुणवत्ता को हानिकारक स्तर पर ले जा रही है। अतः खुले स्थान पर वहीं सोयें जहाँ प्रदूषण मानक स्तरों के अंदर हो। ऐसी आशंका है कि वायु प्रदूषण वर्ष 2050 तक लगभग 6.6 मिलियन समय पूर्व मृत्यु के लिये उत्तरदायी होगा। प्रदूषित वायु में पीएम-2.5 कणों के कारण विश्वभर में 33 लाख लोगों की मृत्यु होती है, इनमें से अधिकाँश एशिया महाद्वीप में हैं। भारत में विश्व की 24 प्रतिशत वार्षिक बाल मृत्य दर मुख्य रूप से श्वसन तंत्र में संकमण के कारण होती है। वर्ष 2010 में घरों के अन्दर वायु प्रदूषण के कारण 3.9 मिलियन लोगों की मृत्यु होने का आकलन किया गया है। वर्ष 2015 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण शोध में यह पाया गया है कि लगभग 66 करोड़ भारतीय, जो भारत की आधी जनसंख्या है, उन क्षेत्रों में निवास करती है जहाँ निलंबित विविक्त कणों के कारण प्रदूषण का स्तर राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों से अधिक है। वायु प्रदूषण के कारण कार्डियोपल्मोनरी रोग, फेफड़ों के कैंसर आदि अनेक रोग होते हैं। अतः हमें अपनी दिनचर्या को इस प्रकार ढालना चाहिये कि प्रदूषणकारी तत्वों के संपर्क में कम से कम आयें।ग्रीष्म ऋतु में हालाँकि व्यायाम और कठोर शारीरिक श्रम वर्जित हैं, परंतु तालाबों, नदियों अैर वापी या बावड़ियों के समीप रह कर शीतलता का लाभ लिया जा सकता है। दोपहर की तेज धूप में सघन वितान वाले विशालकाय शाल, तमाल, ताल आदि प्रजातियों के वृक्षों की छाया में, जहां सूर्य की किरणें न पहुंच पायें, रहा जा सकता है। प्रातः उपवन में घूमते हुये फूलों एवं जलाशयों का आनन्द लिया जा सकता है। मनोहारी उपवन में पक्षियों के कलरव के मध्य मीठी व तोतली बोली बोलनेवाले बाल-बच्चे धमा-चौकडी कर रहे हों तो आनंद ही आनंद है। परिवार के प्रिय सदस्यों और अन्तरंग मित्रों का साथ सुखद रहता है। चन्दन के पानी से शीतल किये हुये कमल या ताड़ के पत्तों से बने पंखों की मंद शीतल हवा और उनसे गिरते हुये जल के कणों का आनंद अवश्य लेना चाहिये। इन सब बातों का ध्यान रखकर ग्रीष्म ऋतु में स्वयं को दोष संचय से बचाते हुये को स्वस्थ व सुखी रखा जा सकता है।ग्रीष्म ऋतु में सीधी धूप से बचना, स्वाभाविक रूप से शीतल कक्षों में निवास, कृत्रिम एयर-कंडीशनिंग का यथासंभव सीमित उपयोग, भारी शारीरिक श्रम से बचना, प्रदूषण से बचना, लवण, कटु एवं अम्ल रस तथा गर्म तासीर वाले शुष्कता उत्पन्न करने वाले पदार्थों से बचना या कम से कम मात्र में सेवन करना, अल्कोहल से बचना, प्रदूषित जल व सड़े-गले खाद्य पदार्थों से सदैव बचना आवश्यक है। स्वच्छता के साथ रसोई में पकाया गया भोजन ही लेना चाहिये। शीतल पेय ग्रीष्म ऋतु में लाभकारी होते हैं, किंतु कृत्रि़म शीतल पेय का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। ऋतुचर्या का समकालीन महत्त्व कम नहीं हुआ बल्कि यह हमारी बिगड़ती जा रही जीवनशैली के कारण होने वाले गैर-संचारी रोगों से बचाव का रास्ता है। इन सब बातों का ध्यान रखकर ग्रीष्म ऋतु में स्वयं को दोष संचय से बचाते हुये को स्वस्थ व सुखी रखा जा सकता है।डॉ. दीप नारायण पाण्डेय(इंडियन फारेस्ट सर्विस में वरिष्ठ अधिकारी)(यह लेखक के निजी विचार हैं और ‘सार्वभौमिक कल्याण के सिद्धांत’ से प्रेरित हैं|)ग्रीष्म ऋतुचर्या के मूल सन्दर्भ--1. च.सू.6.27-32: मयूखैर्जगतः स्नेहं ग्रीष्मे पेपीयते रविः। स्वादु शीतं द्रवं स्निग्धमन्नपानं तदा हितम्।। शीतं सशर्करं मन्थं जाङ्गलान्मृगपक्षिणः। घृतं पयः सशाल्यन्नं भजन् ग्रीष्मे न सीदति।। मद्यमल्पं न वा पेयमथवा सुबहूदकम्। लवणाम्लकटूष्णानि व्यायामं च विवर्जयेत्।। दिवा शीतगृहे निद्रां निशि दन्द्रांशुशीतले। भजेच्चन्दनदिग्धाङ्गः प्रवाते हर्म्यमस्तके।। व्यजनैः पाणिसंस्पर्शैश्चन्दनोदकशीतलैः। सेव्यमानो भजेदास्यां मुक्तामणिविभूषितः।। काननानि च शीतानि जलानि कुसुमानि च। ग्रीष्मकाले निषेवेत मैथुनाद्विरतो नरः।।2. सु.उ.64.40-45: व्यायाममुष्णमायासं मैथुनं परिशोषि च।। रसांश्चाग्निगुणोद्रि क्तान् निदाघे परिवर्जयेत्। सरांसि सरितो वापीर्वनानि रुचिराणि च।। चन्दनानि परार्ध्यानि स्रजः सकमलोत्पलाः। तालवृन्तानिलाहारांस्तथा शीतगृहाणि च।। घर्मकाले निषेवेत वासांसि सुलघूनि च। शर्कराखण्डदिग्धानि सुगन्धीनि हिमानि च।। पानकानि च सेवेत मन्थांश्चापि सशर्करान्। भोजनं च हितं शीतं सघृतं मधुरद्रवम्।। शृतेन पयसा रात्रौ शर्करामधुरेण च। प्रत्यग्रकुसुमाकीर्णे शयने हर्म्यसंस्थिते।। शयीत चन्दनार्द्राङ्गः स्पृश्यमानोऽनिलैः सुखैः।3. अ.हृ.सू.3.26-41: तीक्ष्णांशुरतितीक्ष्णांशुर्ग्रीष्मे संक्षिपतीव यत्।। प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्च वर्धते। अतोऽस्मिन्पटुकट्वम्लव्यायामार्ककरांस्त्यजेत्।। भजेन्मधुरमेवान्नं लघु स्निग्धं हिमं द्र वम्। सुशीततोयसिक्ताङ्गो लिह्यात्सक्तून् सशर्करान्।। मद्यं न पेयं पेयं वा स्वल्पं सुबहुवारि वा। अन्यथा शोषशैथिल्यदाहमोहान् करोति तत्।। कुन्देन्दुधवलं शालिमश्नीयाज्जाङ्गलैः पलैः। पिबेद्र सं नातिघनं रसालां रागखाण्डवौ।। पानकं पञ्चसारं वा नवमृद्भाजने स्थितम्। मोचचोचदलैर्युक्तं साम्लं मृन्मयशुक्तिभिः।। पाटलावासितं चाम्भः सकर्पूरं सुशीतलम्। शशाङ्ककिरणान् भक्ष्यान् रजन्यां भक्षयन् पिबेत्।। ससितं माहिषं क्षीरं चन्द्र नक्षत्रशीतलम्। अभ्रङ्कषमहाशाल तालरुद्धोष्णरश्मिषु।। वनेषु माधवीश्लिष्टद्रा क्षास्तबकशालिषु। सुगन्धिहिमपानीयसिच्यमान पटालिके।। कायमाने चिते चूतप्रवालफललुम्बिभिः। कदलीदलकह्लारमृणाल कमलोत्पलैः।। कोमलैः कल्पिते तल्पे हसत्कुसुमपल्लवे। मध्यंदिनेऽकतापार्तः स्वप्याद्धारागृहेऽथवा।। पुस्तस्त्रीस्तनहस्तास्य प्रवृत्तोशीरवारिणि। निशाकरकराकीर्णे सौधपृष्ठे निशासु च।। आसना स्वस्थचित्तस्य चन्दनार्द्र स्य मालिनः। निवृत्तकामतन्त्रस्य सुसूक्ष्मतनुवाससः।। जलार्द्र तालवृन्तानि विस्तृताः पद्मिनीपुटाः। उत्क्षेपाश्च मृदूत्क्षेपा जलवर्षिहिमानिलाः।। कर्पूरमल्लिकामाला हाराः सहरिचन्दनाः। मनोहरकलालापाः शिशवः सारिकाः शुकाः।। मृणालवलयाः कान्ताः प्रोत्फुल्लकमलोज्ज्वलाः। जङ्गमा इव पद्मिन्यो हरन्ति दयिताः क्लमम्।।